मानव अब सोचने, विश्लेषण करने, याद रखने, निर्णय करने का काम भी अपने दिमाग की जगह मशीनों और सॉफ्टवेयर की सहायता से कराना चाहता है। 1955 में एक कंप्यूटर वैज्ञानिक जॉन मकार्ति ने इस काम को कृत्रिम बुद्धि का नाम दिया और आज, यह प्रौद्योगिकी उद्योग का सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य हिस्सा बन गया है.
कृत्रिम बुद्धि की चर्चा वर्ष 1968 में परवान चढ़ी, जब एक खिलाड़ी ने शर्त लगाई कि वर्ष 1978 तक कोई भी कंप्यूटर उनको शतरंज में मात नहीं दे सकेगा और पहली शर्त जीतने के बाद उन्होंने दूसरी बार पांच सालों के लिए शर्त लगाई, लेकिन इसके बाद उन्होंने शर्त लगाना छोड़ दिया क्योंकि उस वक्त उनको आभास हो गया कि आगे क्या होने वाला है.
साल 1997 में दुनिया के सबसे बेहतर शतरंज खिलाड़ी गैरी कास्परोव को एक विवादित सीरीज़ में आईबीएम के कंप्यूटर डीप ब्लू ने हरा दिया था. आज की तारीख़ में अगर ऐसी कोई शर्त लगाई जाए तो कृत्रिम बुद्धि के आगे सभी को नतमस्तक होना पड़ सकता है. इस दिशा में कंप्यूटर ने जिस तरह से प्रगति की है उससे कृत्रिम बुद्धि जैसी भविष्य की तकनीक के बारे में सोचने पर मजबूर होना लाज़िमी है.
कृत्रिम बुद्धि से लैस आजकल ऐसी मशीनें बन गई हैं जो शेयर बाज़ारों में बड़े बड़े बुद्धिमान लोगों को भी मात दे सकती हैं, युद्ध के मैदान में हावी हो सकती है, इंटरनेट को अपने अधीन कर सकती है, वित्तीय प्रवाह नियंत्रित कर सकती है. मशीनों के भीतर इंसानी दिमाग फिट हुआ तो फिर इन मशीनें को चलाने के लिए इंसान की जरूरत नहीं होगी. पटरियों पर दौड़ती ट्रेन के इंजन में कोई ड्राइवर नहीं होगा ना ही सड़क पर दौड़ती टैक्सी में. सोचने वाली मशीन न केवल सभी प्रणालियों पर नियंत्रण कर सकती है बल्कि अपने ही जैसी नई मशीनें भी बना सकती है. इस दिशा में काफ़ी सफल प्रयोग चल रहे हैं.

नैनो-तकनीक विकसित होते ही कृत्रिम बुद्धि, खुद ही नैनो-रोबटों का निर्माण कर सकेगी. ऐसा माना जाता है कि इसकी शुरूआत आज से 10 साल बाद शुरू हो जायेगी और यह सब 2050 में अपनी चरम सीमा पर होगा
मनुष्य की बुद्धि का विकल्प भले ही कृत्रिम बुद्धि वाली मशीन हो लेकिन निश्चित तौर पर मनुष्य किसी भी मशीन से कहीं अधिक ख़तरनाक है. मनुष्य ही सबसे भयानक तकनीकी आपदाओं के लिए ज़िम्मेदार है. इस संबंघ में जापान के फुकुशिमा परमाणु बिज़ली संयंत्र दुर्घटना के समय सभी उपकरण इस बात का संकेत दे रहे थे कि इस बिजलीघर को बंद कर दिया जाए. लेकिन लोग अपने अधिकारियों को फोन करने लगे, और अधिकारी अपनी सीट पर मौजूद ही नहीं थे. किसी न किसी को तो फैसला लेना था. फैसला नहीं लिया गया क्योंकि किसी भी परमाणु बिजली संयंत्र को बंद करने का काम बहुत महंगा पड़ता है। केवल कंप्यूटर, यानी कृत्रिम बुद्धि ही यह कह रही थी कि परमाणु बिजलीघर को बंद कर देना चाहिए, लेकिन मानव ने ऐसा नहीं किया.
मेरा मानना है कि इस मामले में जीतेगा कृत्रिम बुद्धि वाला कंप्यूटर ही. वह तो शराब नहीं पीता, किसी नशीले पदार्थ का सेवन भी नहीं करता, परेशान नहीं होता, नाराज़ नहीं होता, आत्महत्या भी नहीं करता, क्रोधित नहीं होता, जान बूझ कर कोई दुर्घटना नहीं करता, किसी का अपहरण नहीं करता! कोई भी मशीन अपने आप ऐसा नहीं कर सकती है. उम्मीद है कि तमाम क्षमताओं के बावजूद, कृत्रिम बुद्धि भविष्य में भी ऐसा नहीं करे
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